स्टीयरिंग संभालते हुए
याद आ गया अचानक
कि शुरू-शुरू में
बीच चौराहे पर
बंद हो जाती थी कार
और चारों तरफ़ से
हॉर्न बजाने लगते थे लोग।
"इतने बेसब्र क्यों हो जाते हैं?
क्या दो मिनट सब्र नहीं कर सकते?
दो मिनट रुक जाएंगे
तो कौन सी आफ़त आ जायेगी?
हॉर्न तो ऐसे बजा रहे हैं
जैसे ये हमेशा से ही
परफ़ेक्ट रहे हैं……"
और न जाने क्या-क्या
अपने आप से बतियाते हुए
स्टार्ट कर लेती थी मैं
अपनी कार
और संभाल कर
धीरे-धीरे छोड़ दिया करती थी रास्ता
बहुत तेज़ चलने वालों के लिये।
लेकिन अब
बंद नहीं होती है मेरी गाड़ी।
कैसे फ़र्राटे से दौड़ती है
सड़क के बीचों-बीच।
सोचते-सोचते
अचानक
स्लो हो जाती है
मेरी स्पीड
……
…हे भगवान!
फिर जाम
लगता है
रेड-लाइट पर
किसी की गाड़ी
बंद हो गयी है।
बराबर में खड़ा स्कूटर वाला बोला-
"कोई नौसिखिया लगता है
गाड़ी पर 'एल' लिखा है।"
सुनकर तिलमिला जाती हूँ मैं
और झल्लाकर बोलती हूँ-
…बेवक़ूफ़ कहीं के!
चलानी नहीं आती
तो मेन रोड़ पर
निकलते ही क्यों हैं?
……जैसे-तैसे साइड से
लहरा कर
बड़बड़ाती हुई
निकल जाती हूँ मैं-
"स्ट्यूपिड लोग!"
Friday, February 13, 2009
Thursday, January 29, 2009
अजनबी
अपरिचित बस अजनबी होता है
न अपना होता है
न ही पराया।
पराया होने के लिये
बहुत ज़रूरी है
अपना होना।
अच्छा है
अजनबी से अपना होना
और फिर
अपने से पराया हो जाना।
न अपना होता है
न ही पराया।
पराया होने के लिये
बहुत ज़रूरी है
अपना होना।
अच्छा है
अजनबी से अपना होना
और फिर
अपने से पराया हो जाना।
निभाया तो सही...
सफ़र की शुरुआत में
मेरे भीतर का डर
सालता था मुझे
कि कहीं किसी दिन
तुम भी बदल तो न जाओगे
सबकी तरह।
अच्छी तरह याद है मुझे
तब विश्वास दिलाया था मुझे तुमने
पूरे आत्मविश्वास के साथ-
कि पूरी क़ोशिश करूंगा
न बदलने की…!
कि जैसा मैं हूँ
वैसा ही रहूंगा
हमेशा!
और फिर एक दिन
सबकी तरह
चले गये तुम भी
सफ़र के बीच से ही
मुझे तन्हा छोड़कर।
नहीं……
कोई शिक़ायत नहीं है
मेरे मन में
तुम्हें लेकर।
क्योंकि तुमने तो पूरी तरह
निभाया है अपना वादा;
तुम बिल्क़ुल नहीं बदले;
तुम तो हमेशा
ऐसे ही थे
…सबकी तरह!
मेरे भीतर का डर
सालता था मुझे
कि कहीं किसी दिन
तुम भी बदल तो न जाओगे
सबकी तरह।
अच्छी तरह याद है मुझे
तब विश्वास दिलाया था मुझे तुमने
पूरे आत्मविश्वास के साथ-
कि पूरी क़ोशिश करूंगा
न बदलने की…!
कि जैसा मैं हूँ
वैसा ही रहूंगा
हमेशा!
और फिर एक दिन
सबकी तरह
चले गये तुम भी
सफ़र के बीच से ही
मुझे तन्हा छोड़कर।
नहीं……
कोई शिक़ायत नहीं है
मेरे मन में
तुम्हें लेकर।
क्योंकि तुमने तो पूरी तरह
निभाया है अपना वादा;
तुम बिल्क़ुल नहीं बदले;
तुम तो हमेशा
ऐसे ही थे
…सबकी तरह!
सुरक्षा
सुरक्षा का एक अभेद्य घेरा भी
निश्चिंत नहीं कर
पाता है मुझे।
निरंतर सचेत रहना पड़ता है
चारों ओर से
हर वक़्त…
हर घड़ी…
डर रहता है हर पल
कि न जाने कब
किसी की नज़रें
क़ोशिश करने लगें
मु्झे छू लेने की!
अक़्सर याद आता है
कि कितनी बेफ़िक़्र रहती थी मैं
तुम्हारे साथ
भीड़ भरी बस में भी।
आज भी कभी-कभी
महसूस करती हूँ
कि तुम हौले से मेरा हाथ दबाकर
कान में फुसफुसाते हो-
"चुन्नी ठीक कर ले पागल"
…और आज भी
मैं झेंप कर
झट से ठीक कर लेती हूँ
साड़ी का पल्लू!
निश्चिंत नहीं कर
पाता है मुझे।
निरंतर सचेत रहना पड़ता है
चारों ओर से
हर वक़्त…
हर घड़ी…
डर रहता है हर पल
कि न जाने कब
किसी की नज़रें
क़ोशिश करने लगें
मु्झे छू लेने की!
अक़्सर याद आता है
कि कितनी बेफ़िक़्र रहती थी मैं
तुम्हारे साथ
भीड़ भरी बस में भी।
आज भी कभी-कभी
महसूस करती हूँ
कि तुम हौले से मेरा हाथ दबाकर
कान में फुसफुसाते हो-
"चुन्नी ठीक कर ले पागल"
…और आज भी
मैं झेंप कर
झट से ठीक कर लेती हूँ
साड़ी का पल्लू!
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