अपरिचित बस अजनबी होता है
न अपना होता है
न ही पराया।
पराया होने के लिये
बहुत ज़रूरी है
अपना होना।
अच्छा है
अजनबी से अपना होना
और फिर
अपने से पराया हो जाना।
Thursday, January 29, 2009
निभाया तो सही...
सफ़र की शुरुआत में
मेरे भीतर का डर
सालता था मुझे
कि कहीं किसी दिन
तुम भी बदल तो न जाओगे
सबकी तरह।
अच्छी तरह याद है मुझे
तब विश्वास दिलाया था मुझे तुमने
पूरे आत्मविश्वास के साथ-
कि पूरी क़ोशिश करूंगा
न बदलने की…!
कि जैसा मैं हूँ
वैसा ही रहूंगा
हमेशा!
और फिर एक दिन
सबकी तरह
चले गये तुम भी
सफ़र के बीच से ही
मुझे तन्हा छोड़कर।
नहीं……
कोई शिक़ायत नहीं है
मेरे मन में
तुम्हें लेकर।
क्योंकि तुमने तो पूरी तरह
निभाया है अपना वादा;
तुम बिल्क़ुल नहीं बदले;
तुम तो हमेशा
ऐसे ही थे
…सबकी तरह!
मेरे भीतर का डर
सालता था मुझे
कि कहीं किसी दिन
तुम भी बदल तो न जाओगे
सबकी तरह।
अच्छी तरह याद है मुझे
तब विश्वास दिलाया था मुझे तुमने
पूरे आत्मविश्वास के साथ-
कि पूरी क़ोशिश करूंगा
न बदलने की…!
कि जैसा मैं हूँ
वैसा ही रहूंगा
हमेशा!
और फिर एक दिन
सबकी तरह
चले गये तुम भी
सफ़र के बीच से ही
मुझे तन्हा छोड़कर।
नहीं……
कोई शिक़ायत नहीं है
मेरे मन में
तुम्हें लेकर।
क्योंकि तुमने तो पूरी तरह
निभाया है अपना वादा;
तुम बिल्क़ुल नहीं बदले;
तुम तो हमेशा
ऐसे ही थे
…सबकी तरह!
सुरक्षा
सुरक्षा का एक अभेद्य घेरा भी
निश्चिंत नहीं कर
पाता है मुझे।
निरंतर सचेत रहना पड़ता है
चारों ओर से
हर वक़्त…
हर घड़ी…
डर रहता है हर पल
कि न जाने कब
किसी की नज़रें
क़ोशिश करने लगें
मु्झे छू लेने की!
अक़्सर याद आता है
कि कितनी बेफ़िक़्र रहती थी मैं
तुम्हारे साथ
भीड़ भरी बस में भी।
आज भी कभी-कभी
महसूस करती हूँ
कि तुम हौले से मेरा हाथ दबाकर
कान में फुसफुसाते हो-
"चुन्नी ठीक कर ले पागल"
…और आज भी
मैं झेंप कर
झट से ठीक कर लेती हूँ
साड़ी का पल्लू!
निश्चिंत नहीं कर
पाता है मुझे।
निरंतर सचेत रहना पड़ता है
चारों ओर से
हर वक़्त…
हर घड़ी…
डर रहता है हर पल
कि न जाने कब
किसी की नज़रें
क़ोशिश करने लगें
मु्झे छू लेने की!
अक़्सर याद आता है
कि कितनी बेफ़िक़्र रहती थी मैं
तुम्हारे साथ
भीड़ भरी बस में भी।
आज भी कभी-कभी
महसूस करती हूँ
कि तुम हौले से मेरा हाथ दबाकर
कान में फुसफुसाते हो-
"चुन्नी ठीक कर ले पागल"
…और आज भी
मैं झेंप कर
झट से ठीक कर लेती हूँ
साड़ी का पल्लू!
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